Friday, December 11, 2009

Re: [aryasamajonline] शहीदों के खानदान ही खत्म!

My take:

Governor TV Rajeshwar, who is puppet of super PM Sonia, on Sonia's stance, in collusion with Mulla Ayam the ex CM-UP, sold martyr Ram Prasad Bismil memorial land measuring 3.3 acres situated in civil lines area of Gorakhpur for Rs. 33 crore. When these governors and chief ministers did not spare the martyrs, upon the sacrifices of whom, they are holding their posts, how would they spare citizens?


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Yours faithfully,
Ayodhya Prasad Tripathi, (Press Secretary)
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2009/12/11 Dr.Kavita Vachaknavee <kvachaknavee@yahoo.com>

शहीदों के खानदान ही खत्म!

ढूंढे़ नहीं मिल रहे जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों के परिजन। शर्म! शर्म!! शर्म!!!

सतीश चंद्र श्रीवास्तव


देश को आजादी की प्रेरणा देने वाले जलियांवाला बाग के शहीदों के खानदान ही खत्म हो गए हैं। आजादी के 62 साल बाद इस दुर्गति पर न तो संसद में एक बार भी आवाज उठी है और न ही अब तक आर्डर! आर्डर!! आर्डर!!! वाला कोई वाकया ही सामने आया है। जाहिर है जिन लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में जान गंवाई, उनके खानदान में ही कोई नामलेवा नहीं बचा। ऐसे में उन शहीदों की आवाज कौन उठाए? वर्तमान समय में इस मुद्दे को उठाने की प्रासंगिकता पर भी सवाल खड़े होते हैं। लोग पूछते हैं, गडे़ मुर्दे क्यों उखाड़ते हो? लेकिन मामला मौजूं हो गया है। केंद्र सरकार ने एक साल पहले शहीदों को स्वतंत्रता सेनानी मान तो लिया था, परंतु अब तक उनकी आधिकारिक सूची तक तैयार नहीं हो सकी है। मारे गए हजारों लोगों में से सिर्फ 16 लोगों के वारिसों का पता लगाया जा सका है। घटना के 90 साल और आजादी के 62 साल बाद यह शहीदों के प्रति उदासीनता क्या कम शर्मनाक है! कहते हैं, जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करती, उसका विनाश हो जाता है। विश्व के हर कोने में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। ऐसे में समझ लेने की जरूरत है ही कि देश के नेता भारत के किस भविष्य का निर्माण कर रहे हैं।

14 दिसंबर 2008 को केंद्र सरकार ने जलियांवाला बाग कांड, 1919 के शहीदों को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में शामिल करने का आधिकारिक आदेश जारी किया था। देश के सभी अखबारों और चैनलों पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और अंबिका सोनी की तस्वीरों से युक्त विज्ञापन प्रकाशित और प्रसारित किया गया। अब एक साल बाद सिर्फ 16 शहीदों के परिजनों का पता लगा पाना क्या कौम के खात्मे का गंभीर संकेत नहीं दे रहा? क्या पूंजीवाद और भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्रीयता और राष्ट्रभक्ति जैसी बातें अप्रासंगिक और दकियानूसी नहीं हो गई हैं? परंतु इस बात का जवाब भी तो सोचना पड़ेगा कि राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करके अमेरिका-इंग्लैंड ही नहीं, चीन और जापान भी कोई कदम क्यों नहीं नहीं उठाते? ऐसे में भारतीय व्यवस्था आखिर किनके हाथों में खेल रही है?

सवालों में इतिहासकार

इतिहास के पन्नों में सभी ने पढ़ा है कि 13 अप्रैल 1919 को 'वैशाखी वाले दिन' जनरल डॉयर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग की थी। हजारों की संख्या में लोग मारे गए थे। इतिहासकारों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि किसे भ्रम में डालने के लिए और किसकी चापलूसी करते हुए पुस्तकों में 'वैशाखी वाले दिन' का इस्तेमाल किया गया। हकीकत यह है कि अमृतसर में वैशाखी मेला की कोई परंपरा नहीं है। पंजाब में वैशाखी का मेला आनंदपुर साहिब में लगता है। जलियांवाला बाग में न पहले कभी मेला लगता था और न आज ही कोई परंपरागत आयोजन होता है। कड़वी सचाई यह भी है कि आज के अमृतसर में पांच प्रतिशत लोग भी नहीं जानते कि मजदूर और मानवाधिकारों के विरोधी रॉलेट एक्ट के खिलाफ 31 मार्च और 6 अप्रैल को पूर्ण बंदी तथा 9 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस में हिंदू-मुस्लिम एकता ने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था। आंदोलन प्रभावित करने के लिए 10 अप्रैल 1919 को प्रमुख नेता डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सत्यपाल को गिरफ्तार किया गया तो युवा हिंसक हो उठे। अंग्रेजों पर हमला बोला। स्टेशन, बैंक, डाकघर को निशाना बनाया। देशभक्तों पर हुई फायरिंग में 35 शहीद हुए। 13 अप्रैल को इसी सिलसिले में शोकसभा थी, जिसमें 20 हजार से अधिक लोग मौजूद थे। मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में सेवा समिति के दल ने 1500 से अधिक शहीदों की सूची तैयार की थी। उक्त सूची अब गायब है।

अंग्रेजों के रिकार्ड और गजट के अनुसार 464 देशभक्त शहीद हुए थे। अमृतसर जिला प्रशासन और जलियांवाला बाग कमेटी ने 501 शहीदों की सूची तैयार की है। इनमें से सिर्फ 16 शहीदों के परिजनों का पता लगाया जा सका है। इनमें से 13 नाम जलियांवाला बाग शहीद परिवार समिति के अध्यक्ष भूषण बहल ने दिए हैं। सरकार सिर्फ तीन शहीद परिवारों को ही खोज सकी है। शहीदों की उपेक्षा की पोल खुलने के डर से पिछले एक साल से परिजनों को स्वतंत्रता सेनानी परिवार के रूप में स्वीकृति पत्र देने की प्रक्रिया तक शुरू नहीं की जा सकी है। हकीकत यह भी है कि जलियांवाला बाग में फायरिंग के बाद लगभग छह महीने तक गांवों के लोगों को भी अमृतसर आने-जाने नहीं दिया गया। सबूतों को खत्म करने का प्रयास किया गया। 13 अप्रैल की घटना को एक सप्ताह तक दबाए रखने की कोशिश हुई। जब देशवासियों को दर्दनाक कारनामों की जानकारी मिली तो पूरा देश जल उठा। कवियों ने जलियांवाला बाग को केंद्र में रखकर गीत लिखे। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने सर की ब्रिटिश उपाधि लौटा दी। इस घटना के बाद ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे। उन्हें अमृतसर पहुंचने के पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था। दूसरी तरफ सत्ता से जुड़े लोगों ने मामले को रफा दफा करने की हर संभव कोशिश की। पीडि़तों को बिना देरी मुआवजा दिया गया, ताकि विरोध के स्वर कम हों। इसके साथ ही भ्रम फैलाने का दौर शुरू हो गया।

विभाजन का दर्द

सत्ता पर काबिज होने के लिए कुर्बानियों को कैसे कुर्बान किया जाता है, यह कोई जलियांवाला बाग की मिट्टी से पूछे। आजादी के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता प्रतीक के रूप में उभरे अमृतसरवासियों को देश विभाजन ने सांप्रदायिक हिंसा में झोंक दिया। 9 अप्रैल 1919 को जिस अमृतसर के लोगों ने डा. हफीज मुहम्मद बशीर के नेतृत्व में रामनवमी का जुलूस निकाला था, वहीं के लोगों ने एक दूसरे का खून किया। विभाजन के दौरान 10 लाख लोग मारे गए। अमृतसर का स्वरूप ही बदल गया। मुस्लिम बहुल अमृतसर में बड़ी संख्या में हिंदू और सिख आबादी लाहौर और पेशावर से पलायन कर आ बसी। इधर जिन लोगों के परिजनों ने बाद में वतन के लिए शहादत दी थी, वे जैसे तैसे जिंदा बचे तो, पराया वतन के हो गए। पाकिस्तानी बना दिए गए। ऐसे में कोई क्यों लेगा जलियांवाला बाग के शहीदों की सुध। उनका खानदान या तो सांप्रदायिक खून-खराबे में खत्म हो गया या पलायन कर गया। जो बच गए, वह खौफ खाते हैं कि गलती से उनके देशभक्त परिवार से संबंधित होने का राज न खुल जाए।

शहीद हरिराम बल के पौत्र भूषण बहल 1980 से जलियांवाला बाग केशहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित किए जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। अब वह 60 वर्ष के हो चुके हैं। उनके साथी 90 वर्षीय सोहनलाल भारती का परिवार अमृतसर में फाकाकशी के बाद दिल्ली में दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। बाग कांड के समय सोहनलाल अपनी मां अमृतकौर के गर्भ में थे। इसी वीरांगना मां ने सुहाग लूटने वालों से मुआवजा लेने से इंकार कर दिया था। इसी तरह अमृतसर के चौक पासियां में 65 साल की उम्र में भी टेलीफोन बूथ चला कर गुजारा करने वाले नंदलाल अरोरा अपने शहीद दादा पर गर्व नहीं कर पाते। उन्हें पता है कि 1919 की घटना में अंग्रेजों का साथ देने वालों के पास आज गाड़ी-बंगले और उद्योग-धंधे हैं। वही लोग पैसे के बल पर अब नेता बन कर सरकार चला रहे हैं। इन सभी घटनाक्रमों पर जलियांवाला बाग का कण - कण गवाही दे रहा है, पर कोई सुनने को तैयार नहीं। आजादी के 62 साल बाद भी वहां शहीदों की सूची तक नहीं लग सकी है।

आजादी के बाद बाग

जलियांवाला बाग को सुरक्षित रखने के नाम पर 1952 में संसद में ट्रस्ट बिल पास किया गया। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसके अध्यक्ष बने। उस समय से ही सरकारी कब्जे में चल रहे बाग को अब तक राष्ट्रीय धरोहरों की सूची तक में शामिल नहीं किया जा सका है। संख्या का भ्रम बताकर शहीदों की सूची नहीं तैयार की जा रही। बुरी तरह घिरने केबाद 14 दिसंबर 2008 को भले ही सरकार ने बाग केशहीदों को स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर दिया, पर अब तक एक भी परिवार को स्वतंत्रता सेनानी परिवार का दर्जा नहीं मिल सका है। सवाल दो स्तर पर है। ऐसी कृतघ्नता क्यों? इतनी देरी क्यों? इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि आजादी केबाद से ही जिस ट्रस्ट के अध्यक्ष देश के प्रधानमंत्री रहे हों, उसकी इस कदर उपेक्षा क्यों? प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह वर्ष 2007 से पदेन अध्यक्ष हैं, परंतु एक बार भी इस मसले पर मुंह नहीं खोल पाते तो संदेह और गहरा जाता है।

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